बुधवार, 2 अप्रैल 2014

प्यार का इज़हार एक जुर्म हैं???

पिछले महीने मैं कुछ फोटो देख रहा था जिसमे बजरंग दल के कार्यकर्ता वैलेंटाइन डे पर प्रेमी युगल के चेहरे  पर काला रंग लगा रहे थे. वे बहुत व्यथित दिख रहे थे और कानून के रक्षक इस मुद्रा में खड़े थे जैसे उन्होंने देश पर   कोई परमाणु  हमला होने से रोक दिया हो.  उज्जवल भविष्य की अपेक्षा करने वाले भारत की ऎसी तस्वीर वास्तव में दुखदायी है . मैं नहीं जानता कि  क्यों  हमारा  प्रशासन हमारे  नागरिकों की स्वतंत्रता के बुनियादी मानव अधिकार को बचाने में हरबार नाकाम रहता है? इसका विरोध इस आधार पर किया जाता हैं की वैलेंटाइन डे एक विदेशी संस्कृति हैं जो भारतीय संस्कृति  के लिए घातक है. मेरा प्रश्न  हैं की क्या हजारो वर्ष पुरानी  भारतीय संस्कृति इतनी कमजोर हैं जो मात्र प्रेम के इज़हार (या जो कुछ भी आप समझे)   से ढह जाएगी.
अगर हम इतिहास पर  नज़र डाले तो पायेंगे की भारतीय संस्कृति एक ऐसी संस्कृति हैं जो  हमेशा व्यक्ति  की स्वतंत्रता की वकालत करती  है .  हमारा इतिहास हमें बताता हैं की मात्र कुछ हज़ार साल पहले हम एक खुली सोच वाले समाज थे. सेक्स हमारे लिए इन दिनों की तरह एक वर्जित विषय नहीं था और हम एक बहुत खुश और समृद्ध समाज थे. इतिहासकारों के अनुसार, मुगल और ब्रिटिश आक्रमण से  सेक्स के प्रति हमारे विचार पूरी तरह से बदल गए  और हम एक सबसे पाखंडी समाज में बदल गये.  ध्यान दे पर्दा  पृथा, बाल विवाह   आदि इसी काल की देन है. ये कभी  भी हमारी संकृति के हिस्सा नहीं थे. 

मेरा दूसरा प्रश्न यह  हैं की अगर हम भारतीय संस्कृति को समझे तो क्या वाकई मैं यह हमें उदार(या उन्मुक्त )  होने से रोकती हैं?  वेद  के अनुसार पुरुषार्थ  (एक व्यक्ति के  आध्यात्मिक कर्त्तव्य)  में  काम  (sex) क्रम  में केवल धर्म (religion) के बाद आता है.
हमें स्वीकार करना होगा की हम खुद के प्रति ईमानदार नहीं हैं. जब हम वैलेंटाइन डे, विदेशी संस्कृति  इत्यादि पर उल्टियां करते हैं तो यह भूल जाते हैं की हमारा पहनावा, तकनीक,  कंप्यूटर, मोबाइल्स, फेसबुक इत्यादि सब  इसी विदेशी संस्कृति की देन  है  और  हम चाहे या न चाहे हमें इस विदेशी संस्कृति एवं इसके इन उपहारों  के साथ ही जीना पड़  रहा है .  चलिए मुझे बताइए हम क्यों भारतीय होने पर गर्व करे? अब  कृपया मुझे वैदिक काल एवं हमारे पूर्वजो के  बारे में बताना शुरू न कर  दे. वे वास्तव में महान थे, उस वक्त महिलाओ को  कपडे पहनने  पूरी छुट थी  क्योकि वे आज की तरह हवस के भूखे नहीं थे   और उन्हें न ही उन्हें इस तरह के राजनितिक ढकोसले करने का वक्त था.  दिनों दिन बढ़ते बलात्कार, छेड़ - छाड़  हमारी  दोहरी मानसिकता के ही  तो  प्रतिक है . 
वास्तव  में  कुछ  देशो में  तो लोग उन नियमो का पालन कर रहे  हैं जो की हमने वैदिक काल में खोजे थे  और आप  देख सकते हैं   वे हमसे ज्यादा खुश और समृद्ध हैं.
क्या हम अपने लोगो को साफ़ पानी,  सही शिक्षा, नवीन तकनीक  दे रहे हैं? शायद नहीं.  तो क्या हमें नहीं सीखना चाहिए की कैसे विदेशी हमसे यह बेहतर कर रहे है ?
क्या हम  अपने यहाँ महिलाओ को पूरा सम्मान  दे पाते है? शायद नहीं. तो क्या हमें पाश्चात्य संस्कृति से यह नहीं सीखना  चाहिए की कैसे हम स्त्रियों का सम्मान कर सकते हैं.
नहीं हम नहीं  सीख सकते हैं.  क्योंकि हमें शर्म आती हैं वह सब सिखने में जो हमने खुद उन्हें कभी सिखाया था.  

ps- उम्मीद हैं इस पोस्ट के पश्चात कोई हमें पाश्चात्य संस्कृति का एजेंट घोषित नहीं करेगा.  :-)

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