बुधवार, 2 अप्रैल 2014

शीर्षक कविता (title song)

अन्तस में प्रेत मन्त्र हैं,
ओठों पर गीता है;
जी रहे मुखौटे हैं,
आदमी न जीता है।
दर्द में इजाफ़ा तो,
कर दिया हकीमों ने;
वैसे तो चोट बहुत;
हल्की थी मोच में।
बँटे खेत, दालान, वरोठे,
टुकड़े-टुकड़े आँगन;
किंतु अभी भी गड़े आँख में,
बूढ़ें बापू की पेंशन।
साँपों के आगे पड़कर,
अब नेउला पूँछ हिलाए;
शेर देखते ही सियार को;
फौरन हाथ मिलाए।
जिसकी बाँहों में पलते हैं
उसे बखूबी डसते हैं,
बहुत बार आजमा लिया
अब न भरोसे करते है।
टका सेर में बिकती भाजी
टका सेर में खाजा,
यदि अँधेर बचाना है तो
बदलो चौपट राजा।

आँखे भले हम मीच ले,
पर दिन तो न ढलता हैं।
सुबह-अख़बार-चाय और कहना,
सब ऐसे ही चलता हैं।
यह चक्र हैं दुनिया गोल हैं
सब वही पर आता हैं।
जो करता वो भी भरता हैं,
जो देखे वो भी चुकाता हैं।
सूरज को दीपक दिखाते,
और अंधियारी रात करते हैं।
हम कद में छोटे सही,
बड़े ख़यालात करते हैं।
कोई हो शहंशाह घर का,
हम डट कर मुलाकात करते हैं।

खामोश हूँ तो लाजवाब न समझ,
समन्दर कहाँ प्रपात करते हैं?
अगर मगर अब बहुत हुआ,
चल अब सीधी बात करते हैं।
तू चल अपनी औकात दिखा,
हम भी बराबर जात करते हैं।
आज जो आमने सामने हैं,
मिलकर कर एक एक हाथ करते हैं।
छोटा मुंह हैं,
मगर बड़ी बात करते हैं।

-विनय भदौरिया एवं पेज प्रबंधक
{छोटा मुंह और बड़ी बात}

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